विस्फोट
धमाको से नहीं उड़ते
चीथड़े सिर्फ इंसानी जिस्मो के
बल्कि उड़ जाते हैं
परखच्चे
अमन और ईमान के
फिजा में रह जाती है बारूद की महक
बरसों बरस
इंसानी दिमाग मैं बैठे
नफरत के फितूर सी
अब फिर कुछ दिनों
तक इंसानियत
भीख मांगेगी
चौराहों पर
नुक्कड़ की पगली सी ......
(हम शर्मिंदा हैं )
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मृदुला शुक्ला
जी,
ReplyDeleteजीतने की नहीं ... हराने की दौड लगी है ... मुहब्बतों का स्थान ताकत ने ले लिया है ... सारे धर्म बेअसर हैं ... यही सब होता रहता है ... आदमी हैवान बनता रहता है ... इंसान शर्मिन्दा होता रहता है ...