Thursday 4 April 2013

यादें

यादें बचपन के अंगूठे में लगी
ठेस सी होती हैं
जो भरते भरते
फिर से ही दुःख जाती हैं अचानक
खेल खेल में

और भूलने की कोशिश
उन की सलाइयों पर
छूट गया वो फन्दा
जो शाम को उधड़वा देता है
पूरी बुनाई
कल दुबारा बुनने के लिए

जेठ की दोपहर मैं डामर वाली सड़क पर
खुले सर और नंगे पाँव चलना है
जब पिघलता डामर लिपट रहा हो पैरों से
तो बस हिकारत से देख सूरज को कह देना
देखो तुम भी मत टपक पड़ना
इन निगोड़ी यादों सा

भूलना और याद करना शायद
पहुंचना होता है टी पॉइंट पर
जहाँ ख़तम नहीं होता पुराना रास्ता
बस दो और राहें फूट पड़ती है
उलझन भरी
                                                                          मृदुला शुक्ला

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