Monday 22 April 2013

खुद से प्रेम...

जब बात चलती है प्रेम की तो आँखों में
तैर जाता है तुम्हारा चेहरा अनायास
फिर हिंडोले सा झूलता है हुआ
तुम्हार संसार
सहेजती हूँ!!
पिछली शाम
खरीद कर लाया टी सेट ,
माँकी दी हुई साडी ,
सासु माँ के कंगन,
वो तुलसी जो बालकनी को आँगन बनती है

संभाल कर जलाती हूँ रोज मंदिर का दिया
अंदर कुछ टूट जाता है जब
बर्तन मांजते हुए महरी से टूट जाता है
पुराने कप का हैण्डल

बेचैन रहती हूँ दिन भर
जब तुम भूल जाते हो अपना टिफिन
हड़बड़ी में
जबकि जानती हूँ की कंटीन है
तुम्हारे केबिन के बगल में

जीती हूँ तुम्हारे रिश्ते नाते
अपनों की तरह
तुम्हारी दुनिया की परिधि में खींच लेती हूँ एक नयी वृत्त
तुम्हे केंद्र मान कर
सब से प्रेम करती हूँ
सिवाय खुद के
कल एक ख्याल आया की
चलो खुद से भी प्रेम किया जाए

धत्त !!औरतों से भी कोई कोई प्रेम करता है
उनसे तो इश्क किया जाता है
मृदुला शुक्ला

No comments:

Post a Comment