Sunday 9 June 2013

बंद कमरा

बहुत बेतरतीब है कामगारों की बस्ती सा ये कमरा ,
बंद पड़ी दीवाल घडी वक्त पूछती रहती है सबसे
वक्त बे वक्त
और हमेशा अपना सीना टटोल मिस करती रहती है
टिक टिक की आवाज

चिंता में रहती है तीन टांगो वाली डायनिंग टेबल
इस घर के लोग अब कुछ खाते क्यूँ नहीं
याद करती है पकवानों की खुशबु
और खो जाती है बिना रुके चलती पार्टियों के दौर में

गठ्ठर मैं बंधी किताबें हुलस कर बात करती हैं अक्सर
उन दिनों की जब वो चिपकी रहा करती थी किसी नाजनीन के सीने से

इस कमरे में अक्सर कानाफूसी होती है
यंहा टेबल तीन पैर की तिपाया दो पैर का
कुर्सियां बिना हत्थे की क्यूँ हैं

जब भी चरमरा कर खुलता है दरवाजा
चौकन्नी हो जाती है जंग खाई सिलाई मशीन
शायद आज फिर कोई तेल डाल करेगा पुर्जे साफ़, ,
वो इतराती हुई सी गढ़ेगी कुछ नया सा

हैंडल टूटे मग अक्सर बाते करते हैं कॉफ़ी के
अलग अलग फ्लेवर के बारे में,

कभी कभी मुझे ये कमरा बस्ती से दूर किसी वृधाश्रम सा लगता है
जहाँ सब खोये होते हैं अपनी जवानी के दिनों में,
सब रहते हैं उदास,
धूल की एक मोटी चादर बड़े प्यार से
समेट कर रखती उन सबको अपने भीतर,
जैसे अवसाद समेटे रहता है बुजर्गों को

मकड़िया मुस्कुराती रहती हैं सुन कर इनकी बातें
बुनते हुए जाल इस छोर से उस छोर तक
मानो सेवक हो वृधाश्रम के

                                                              -मृदुला शुक्ला

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